Monday, August 16, 2010

जिन्ना अगर नहीं होता

जिन्ना अगर न होता, ना होता वतन का टुकड़ा
न बंटती फिर ज़मीनें, ना खींची जाती सरहद
ना होती दिल में नफरत, ना रोज की बगावत
गुलिस्तां हमारा हंसता, जिन्ना अगर न होता।।

जन्नत है जो जहां का, कश्मीर धू-धू न जलता
सुनते चहक परींदों की, धमाके न रोज होते
न खेली जाती होली, नौजवानों के लहू से
दरख्तों पर उगती मुहब्बत, जिन्ना अगर न होता।

असलों पर बैठकर जो खेली जा रही सियासत
इस खूनी खेल के न हम चश्मदीद होते
न तुम उस पार रोते, न हम इस पार रोते
चिनाब से बिछड़कर गंगा का दिल न रोता , जिन्ना अगर न होता।

नफ़रत का बीज बोकर, बारूद न पैदा होता
मिलती सबको रोटी, भूखा न कोई सोता
1965 न हमें रूलाता, न 1971 का दर्द रहता
कारगिल का खूनी मंजर न चीख-चीख कहता
जिन्ना अगर न होता, जिन्ना अगर न होता।

न हिन्दुस्तान होता न पाकिस्तान होता
हम होते भारतवासी, भारत के वाशिंदे
न टुकड़ों में हम जीते, न लहू के आंसू पीते
जिन्ना अगर न होता, जिन्ना अगर न होता।

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